Wednesday, April 26, 2006

अग्नी मंत्र (स्वामी विवेकानन्द)

हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हे दिखाता हूँ! (वि.स. ६/८) मन्त्र क्र.१



बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।

(विवेकानन्द साहित्य खण्ड-४पन्ना-३१५) (४/३१५)



तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते - तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ धीरे - धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!
(वि.स. ४/३८७)



किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स.४/३२०)

लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। (वि.स.६/८८) मन्त्र क्र.३

श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। -- प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनीया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फतह! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले! ....बडे - बडे बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) ...धीरे - धीरे सब होगा।

वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य -- जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो -- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। (वि.स. ४/३९५)


...इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है -- बडे आदमी वो हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं- यही सदा से होता आया है -- एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ। )


मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना -- इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। (वि.स.६/३५२)

मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता। (वि.स.३/३८१)

अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो- बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दुसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उन्की कृपा से सब ठीक हो जायेगा।

जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों- दो क्यों न रहें- परवाह नहीं परन्तु जितने हों सम्पूर्ण शुध्दचरित्र हों।

नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुध्द रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो -- प्रणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते -- यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप्, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।(वि.स.१/३५०)

शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष , निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो -- सारा धर्म इसी में है। (वि.स.१/३७९)

क्या संस्कृत पढ रहे हो? कितनी प्रगति होई है? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके होगे। विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो। (वि.स.१/३७९-८०)

शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। (वि.स.४/३१९)

बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी। (वि.स.१/३८०)

बालकों, दृढ बने रहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है - सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न - बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्य हो सकता है? समय, धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदा शुभकामनाओं के साथ तुम्हारा विवेकानन्द। (वि.स.४/३४०)


'जब तक जीना, तब तक सीखना' -- अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। (वि.स.१/३८६)


जीस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, क्योंकि अनन्त काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है एवं सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है। (वि.स.१/३८७)

पवित्रता, दृढता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ। (वि.स.४/३४७)


भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है- और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है। (वि.स.४/३५१)

पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं। (वि.स.४/३५१)

साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना -- यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे -- माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे। (वि.स.४/३५६)

बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है। (वि.स.४/३३९)

महाशक्ति का तुममें संचार होगा -- कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ। (वि.स.४/३६१)


बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही। (वि.स.४/३६२)

धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लडो! रुपये - पैसे के व्यवहार में शुध्द भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हे सफलता मिलेगी। (वि.स.४/३६८)


जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः। (वि.स.४/२७६)

ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो -- संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। (वि.स.४/२८०)

पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।(वि.स.४/२८४)


यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो। (वि.स.४/२८५)


पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो उसीसे भविष्य में कलह का बिजारोपण होगा। (वि.स.४/३१२)


यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। (वि.स.४/३१३)


गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है। (वि.स.४/३१८)


बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो। (वि.स.४/३३२)


किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है।
(वि.स.४/३१५)

किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स. ४/३२०)

क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुध्दिमानी नहीं है। बुध्दिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खडा होकर कार्य करना चहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। (वि.स. ४/३२८)

बच्चे, जब तक हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास - ये तीनों वस्तुएम रहेंगी - तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो। (वि.स. ४/३३२)

आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ -- इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा। (वि.स. ४/३३८)

न टालो, न ढूँढों -- भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेहे, उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है। (वि.स. ४/३४८)

शक्ति और विशवास के साथ लगे रहो। सत्यनिष्ठा, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लडो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है। (वि.स. ४/३६९)

एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे। (वि.स. ४/३७७)

स्वामी विवेकानन्द जी के विचार

मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। (वि.स. ४/४०७)

जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी (श्री रामकृष्ण के वाणी) के बीच पूर्ण रूप से निमग्न पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शान्ति की वर्षा करने वाली है, तो मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगता है। ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की बात है।
(वि.स. १/३३४, ६ फरवरी, १८८९)

'बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए' - यहि मेरा धर्म है। "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है।" (वि.स.४/३२८)

हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है -- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान् में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे। (वि.स.४/३३०)

यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बिमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सीर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है-- वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो-- तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है? आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूँ? हें भगवान, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा। (वि.स.१/३८५)

प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता। (वि.स.१/३८९)

यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, किन्तु ज्यों ही तुम उस कार्य को वन्द कर दो, वे तुरन्त (ईश्वर न करे) तुम्हे बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे - स्नेहियों द्वरा सदा ठगे जाते हैं।
(वि.स)

मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? ... जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करने वालो, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुध्दिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृध्दिगत कूडा-कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? ...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी - गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी - जान से तडप रहे हो -- यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है। तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्द बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ' रोटी दो, रोटी दो ' चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उन्के हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड - मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हे मनुष्य से प्रेम है? यदि 'हाँ' तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पिछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है -- मस्तिष्क - वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है... ( वि.स.१/३९८-९९)

न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिन्का चित्र ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। (वि.स.४/३३६)

यही रहस्य है। योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, " जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसीका प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्य्क्ष आचरण नहीं करता। (वि.स.४/३३७)

एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यद्र्ष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हे नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, देवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया। (वि.स. ४/३३७)

जो सबका दास होता है, वही उन्का सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। (वि.स. ४/४०३)
वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल
सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम्! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे
में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो। (वि.स. ४/३८७)

अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसीसे विरोध नहीं होता, वह किसीकी शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है। (वि.स. ४/३८१)

मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें
आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में
और क्या है? इससे महान कर्म क्या है? (वि.स. ४/४०८)

स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन

परमात्मा की कृपा पर मेरा अखण्ड विश्वास है। वह कभी टूटने वाला भी नहीं। धर्मग्रन्थो पर मेरी अटूट श्रध्दा है। परन्तु प्रभु की इच्छा से मेरे गत छः सात वर्ष निरन्तर विभिन्न बिघ्न-बाधाओं से लडते हुए बीते। मुझे आदर्श शास्त्र प्रात्त हुआ है; मैंने एक आदर्श महापुरुष के दर्शन किये हैं, फिर भी किसी वस्तु का अन्त तक निर्वाह मुझसे नहीं हो पाता, यही मेरे लिए बडे कष्ट की बात है। ... कलकत्ते में मेरी माँ और दो भाई रहते हैं। मैं सबसे बडा हूँ। दूसरा भाई एफ. ए. परीक्षा की तैयारी कर रहा है और तीसरा अभी छोटा है। वे लोग पहले काफ़ी सम्पन्न थे, पर मेरे पिता की मृत्यु के बाद उनका जीवन कष्टमय हो गया है। कभी-कभी तो उन्हे भूखा रहना पडता है। सबसे बडी बात तो यह है कि उन्हे असहाय पाकर कुछ समन्धियों ने उन्हे पैतृक घर से भी निकाल दिया है। कुछ भाग तो हाईकोर्ट में मुक़दमा लडकर पुनः प्राप्त कर लिया गया है, परन्तु वे मुक़दमेबाज़ी के कारण धनहीन हो गये हैं। कलकत्ते के पास रहकर मुझे अपनी आँखो उनकी दुरवस्था देखनी पडती हैं। उस समय मेरे मन में रजगुण जाग्रत हो उठता है और मेरा अंहभाव कभी - कभी उस भावना में परिणत हो जाता है, जिसके कारण कार्यक्षेत्र में कुद पडने की प्रेरणा होती है। ऐसे क्षणों में मैं अपने मन में एक भयंकर अन्तर्द्वन्द्व अनुभव करता हूँ। ...अब उनका मुक़दमा समाप्त हो चुका है। आशीर्वाद दीजिए कि कुछ दिन कलकत्ते में ठहर कर उन सब मामलों को सुलझाने के बाद मैं इस स्थान (कलकत्ता) से सदा के लिए विदा ले सकुँ।
( वि.स. १/३३७, ४ जुलाई, १८८९ )

स्वामी विवेकानन्द जी का स्वास्थ्य

लेकिन दुर्भाग्यवश उस गाँव के रास्ते में ही मुझे तेज़ बुखार आ गया और फिर क़ै - दस्त होने लगी, जैसी हैज़े में होती है। तीन - चार दिन बाद बुखार फिर हो आया -- और इस समय शरीर में इतनी कमज़ोरी है कि मेरे लिए दो क़दम चलना भी कठिन है। मुझे यह पता नहीं कि ईश्वर की क्या इच्छा है, लेकिन इस मार्ग पर चलने के लिए मेरा शरीर बिल्कुल अक्षम है। फिर भी, शरीर ही तो सब कुछ नहीं है। ...विश्वेश्वर, जैसा चाहेंगे, चाहे जो हो, वही होगा। ( वि.स. १/३३५, २१ फरवरी, १८८९)

इस समय मैं बहुत बीमार हूँ। कभी - कभी बुखार हो जाता है। लेकिन प्लीहा या किसी अन्य अंग में कोई गडबडी नहीं है। मैं होमियोपैथिक चिकित्सा करा रहा हूँ। (वि.स. १/३३५, २१ मार्च, १८८९, कलकत्ता)

वाराणसी में जब तक रहा, हर समय ज्वर बना रहा, वहाँ इतना मलेरिया है। गाज़ीपुर में, खासकर जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ की जलवायु स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभदायक है।
(वि.स. १/३५२, ३० जनवरी१८९०, गाज़ीपुर)

मेरी भी कमर में एक प्रकार का दर्द बना हुआ है, हाल में वह दर्द बहुत बढ गया है एवं कष्ट दे रहा है। ...मैं कटिवात से बहुत पीडित रहा हूँ। (वि.स. १/३५६, १३ फरवरी१८९०, गाज़ीपुर)

कमर दर्द ज़रा भी अच्छा नहीं हो रहा है, बहुत कष्ट है। ...यहाँ (गाज़ीपुर) ठहरने से मैं मलेरिया से मुक्त हो गया हूँ। केवल कर्मर की पीडा ने मुझे बेचैन कर रखा है। दर्द दिन - रात बना रहता है और मुझे बहुत बेचैनी रहती है। (वि.स. १/३६४-५, ३ मार्च१८९०, गाज़ीपुर)

कमर का दर्द भी किसी तरह ठीक नहीं हो पाता -- बडी बला है। धीरे - धीरे अभ्यस्त होता जा रहा हूँ। (वि.स. १/३७२, २ अप्रैल१८९०, गाज़ीपुर)

मेरा स्वास्थ्य अब काफ़ी अच्छा है; और गाज़ीपुर में रहने से जो लाभ हुआ है आशा है, वह कुछ समय तक अवश्य टिकेगा। (वि.स. १/३७८, ६ जुलाई१८९०, बागबाज़ार)

अभी से यहाँ (हैदराबाद) अत्यन्त गर्मी पड रही है, पता नहीं, राजपूताने में और भी कितनी भीषण गर्मी होगी और मैं गर्मी बिल्कुल सहन नहीं कर सकता। अतः इसके बाद यहाँ से मुझे बंगलोर जाना पडेगा, तत्पश्चात् उटकमण्ड जाकर मुझे गर्मी बीताना है। गर्मी में मानो मेरा मस्तिष्क खौल जाता है।
(वि.स. १/३८६, २१ फ़रवरी१८९३, हैदराबाद)
मैं इतना अधिक थका हुआ हूँ। कि यदि मुझे बिश्राम न मिले तो अगले छः माह तक मैं जीवित रह सकूँगा भी या नहीं, इसमें मुझे सन्देह है।(वि.स. ६/३०३,२५ फ़रवरी १८९७,आलमबाज़ार मठ)

हाय मेरा शरीर कितना दुर्बल है, तिस पर बंगाली का शरीर -- इस थोडे परिश्रम से ही प्राणघातक व्याधि ने इसे घेर लिया। परन्तु आशा है कि उत्पत्स्यतेsस्ति मम कोठपि समानधर्मा, कालो ह्यायं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी। (भवभूति) -- अर्थात् मेर समान गुणवाला कोई और है या होगा, क्योंकि काल का अन्त नहीं और पृथ्वी भी विशाल है।(६/३१४,२४ अप्रैल, दार्जिलिंग)

दुर्भाग्यवश इंग्लैण्ड में अत्यन्त परिश्रम से मैं पहले ही थका हुआ था,और दक्षिण भारत की गर्मी में इस अत्यधिक परिश्रम ने मुझे बिल्कुल गिरा दिया।(६/३१५, २८ अप्रैल, दार्जिलिंग)

मेरे गुच्छे के गुच्छे बाल सफेद हो रहे हैं और मेरे मुख पर चारों ओर से झुर्रियाँ पड रही हैं; शरीर का मांस घटने से बीस वर्ष मेरी आयु बढी हुई मालूम पडती है। और अब मेरा शरीर तेज़ी से घटता चला जा रहा है, क्योंकि मैं केवल मांस पर ही जीवित रहने को विवश हूँ -- न रोटी, न चावल, न आलू और कॉफ़ी के साथ थोडी सी चीनी ही। (६/३१६, २८ अप्रैल, दार्जिलिंग)

मैं अपने बिगडे हुए स्वास्थ्य को सँभालने एक मास के लिए दार्जिलिंग गया था। मैं अब पहले से बहुत अच्छा हूँ। दार्जिलिंग में मेरा रोग पूरी तरह से भाग गया। (६/३१७, ५ मई, १८९७,आलमबाज़ार मठ)

स्वास्थ्य सुधारने के लिए मुझे एक माह तक दार्जिलिंग रहना पडा। तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि मैं पहले की अपेक्षा बहुत कुछ स्वस्थ हूँ। और, क्या तुम्हें विश्वास होगा, बिना किसी प्रकार की औषधि सेवन किये केवल इच्छा - शक्ति के प्रयोग द्वारा ही? (६/३२०,५ मई, १८९७,आलमबाज़ार मठ)

अल्मोडा में अत्यधिक गर्मी होने की वजह से वहाँ से २० मील की दूरी पर मैं एक सुन्दर बगीचे में रह रहा हूँ... मुझे अब बुखार नहीं आता। और भी ठन्डे स्थान में जाने की चेष्टा कर रहा हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि गर्मी तथा चलने के श्रम से 'लीवर' की क्रिया में तुरन्त गडबडी होने लगती है। यहाँ पर इतनी सूखी हवा चलती है कि दिन - रात नाक में जलन होती रहती है और जीभ भी लकडी जैसी सूखी बनी रहती है। (६/३२२, २० मई१८९७ अल्मोडा)

सुबह - शाम घोडे पर सवार होकर मैंने पर्याप्त रूप से व्यायाम करना प्रारम्भ कर दिया है और उसके बाद से सचमुच मैं बहुत अच्छा हूँ। व्यायाम शुरू करने के बाद पहले सप्ताह में ही मैं इतना स्वस्थ अनुभव करने लगा, जितना कि बचपन के उन दिनों को छोडकर जब मैं कुश्ती लडा करता था, मैंने कभीनहीं किया था। तब मुझे सच में लगता था कि शरिरधारी होना ही एक आनन्द का विषय है। तब शरीर की प्रत्येक गति में मुझे शक्ति का आभास मिलता था तथा अंग - प्रत्यंग के संचालन से सुख की अनुभूति होती थी। वह अनुभव अब कुछ घट चुका है, फिर भी मैं अपने को शक्तिशाली अनुभव करता हूँ।... एक उल्लेखनीय परिवर्तन दिखायी दे रहा है। बिस्तरे पर लेटने के साथ ही मुझे कभी नींद नहीं आती थी -- घंटे दो घंटे तक मुझे इधर - उधर करवट बदलनी पडती थी। केवल मद्रास से दार्जिलिंग तक (दार्जिलिंग में सिर्फ़ पहले महीने तक) तकिये पर सिर रखते ही मुझे नींद आ जाती थी। वह सुलभनिद्रा अब एकदम अन्तर्हित हो चुकी है और इधर - उधर करवट बदलने की मेरी वह पुरानी आदत तथा रात्रि में भोजन के बाद गर्मी लगने की अनुभूति पुनः वापस लौट आयी है। दिन में भोजन के बाद कोई खास गर्मी का अनुभव नहीं होता।... साधारणतया यहाँ पर मुझे शक्तिवर्ध्दन के साथ ही साथ प्रफुल्लता तथा विपुल स्वास्थ्य का अनुभव हो रहा है। चिन्ता की बात केवल इतनी है कि अधिक मात्रा में दूध लेने के कारण चर्बी की वृध्दि हो रही है।... हाँ, एक बात और है, मैं आसानी से मलेरियाग्रस्त हो जाता हूँ... खैर, इस समय तो मैं अपने को अत्यन्त बलशाली अनुभव कर रहा हूँ। डॉक्टर, आजकल जब मैं बर्फ़ से ढके हुए पर्वतशिखरों के सम्मुख बैठकर उपनिषद् के इस अंश का पाठ करता हूँ -- न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्त्स्य योगाग्निमयं शरीरम् (जिसने योगाग्निमय शरीर प्राप्त किया है, उसके लिए जरा-मृत्यु कुछ भी नहीं है) उस समय यदि एक बार तुम मुझे देख सकते! (६/३२४,२९मई,१८९७,अल्मोडा)
शुध्द हवा, नियमानुसार भोजन और यथेष्ट व्यायाम करने से मेरा शरीर बलवान तथा स्वस्थ हो गया है। (६/३३०,अल्मोडा)

मैं अब पूर्ण स्वस्थ हूँ। शरीर में ताक़त भी खूब है; प्यास नहीं लगती तथा रात में पेशाब के लिए उठना भी नहीं पडता।... कमर में कोई दर्द - वर्द नहीं है; लीवर की क्रिया भी ठीक है।... पर्याप्त मात्रा में आम खा रहा हूँ। घोडे की सवारी का अभ्यास भी विशेष रूप से चालू है -- लगातार बीस - तीस मील तक दौडने पर भी किसी प्रकार के दर्द अथवा थकावट का अनुभव नहीं होता। पेट बढने की आशंका से दूध लेना क़तई बन्द है। (६/३३७,२०जून,१८९७, अल्मोडा)

गीता स्लोकार्थ (आभारित विवेकानन्द साहित्य)

जो लोग जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हे उसी प्रकार भजता हूँ अर्थात उन पर उसी प्रकार अनुग्रह करता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। ( गीता ४/११)
( वि.स. १ /४)

मंत्र तथा अर्थ (आभारित विवेकानन्द साहित्य)

मंत्र तथा अर्थ (आभारित विवेकानन्द साहित्य)


1) किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्ति:
आमन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्।
त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले
आत्मैव हि प्रभवते न जडः कदाचित्।।


हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं।


2) मा भैष्ट विद्वस्त्व नास्त्यपायः संसारसिन्धोस्तरणेsस्त्युपायः।

येनैव याता यतयोsस्य पारं तमेव मार्ग तव निर्दिशामि।।
(विवेकचुडामणी-४३)

हे विद्वन! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं है, संसार-सागर के पार उतरने का उपाय है। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार सागर के पार उतरे हैं,वही श्रेष्ठ पथ मैं तुम्हे दिखाता हूँ!
( वि.स. १/८)


3) निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु।
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।

गीत ( स्वामी विवेकानन्द )

काली माता

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छिप गये तारे गगन के,

बादलों पर चढे बादल,

काँपकर गहरा अँधेरा,


क्रमशः...

भैरवी एकताला

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जागो माँ कुलकुण्डलिनी,तुमि ब्रह्मानन्दस्वरूपिणी, तुमि नित्यानन्दस्वरूपिणी प्रसुप्त्-भुजगाकारा आधारपद्मवासिनी
त्रिकोणे ज्वले कृशानु,तापिता होइलो तनु, मूलाधार त्यज शिवे स्वयन्भू-शिव-वेष्टिनी
गच्छ सुषुम्नारि पथ, स्वाधिष्ठाने होओ उदित,मणिपुर अनाहत विशुध्दाज्ञा संचारिणी
शिरसि सहस्त्रदले, पर शिवेते मिले,क्रीडा करो कुतूहले, सच्चिदानन्ददायिनी

ओ माँ कुलकुण्डलिनि, जागो! तुम नित्यानन्द- स्वरूपिणी हो,
ब्रह्मानन्द-स्वरूपिणी हो; ऐ मूलाधार - पद्म में बसनेबाली माँ,
तुम् सर्प के समान सोयी हुई हो। त्रितापरूपी अग्नि से, ओ माँ,
मेरा तन - मन जला जा रहा है। ऐ स्वयम्भू शिव की सहचरी शिवे,
मूलाधार को छोड स्वाधिष्ठान में उदित होकर सुषुम्ना के पथ से ऊपर उठो।
फिर माँ मणिपोर, अनाहत, विशुध्द और आज्ञा चक्रो में से होते हुए
मस्तक में सहस्रार में पहुँचकर परमशिव के साथ युक्त हो जाओ और

हे सच्चिदानन्ददायिनी, वहाँ पर आनन्द के साथ क्रिडा करो।