Wednesday, April 26, 2006

गीत ( स्वामी विवेकानन्द )

काली माता

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छिप गये तारे गगन के,

बादलों पर चढे बादल,

काँपकर गहरा अँधेरा,


क्रमशः...

भैरवी एकताला

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जागो माँ कुलकुण्डलिनी,तुमि ब्रह्मानन्दस्वरूपिणी, तुमि नित्यानन्दस्वरूपिणी प्रसुप्त्-भुजगाकारा आधारपद्मवासिनी
त्रिकोणे ज्वले कृशानु,तापिता होइलो तनु, मूलाधार त्यज शिवे स्वयन्भू-शिव-वेष्टिनी
गच्छ सुषुम्नारि पथ, स्वाधिष्ठाने होओ उदित,मणिपुर अनाहत विशुध्दाज्ञा संचारिणी
शिरसि सहस्त्रदले, पर शिवेते मिले,क्रीडा करो कुतूहले, सच्चिदानन्ददायिनी

ओ माँ कुलकुण्डलिनि, जागो! तुम नित्यानन्द- स्वरूपिणी हो,
ब्रह्मानन्द-स्वरूपिणी हो; ऐ मूलाधार - पद्म में बसनेबाली माँ,
तुम् सर्प के समान सोयी हुई हो। त्रितापरूपी अग्नि से, ओ माँ,
मेरा तन - मन जला जा रहा है। ऐ स्वयम्भू शिव की सहचरी शिवे,
मूलाधार को छोड स्वाधिष्ठान में उदित होकर सुषुम्ना के पथ से ऊपर उठो।
फिर माँ मणिपोर, अनाहत, विशुध्द और आज्ञा चक्रो में से होते हुए
मस्तक में सहस्रार में पहुँचकर परमशिव के साथ युक्त हो जाओ और

हे सच्चिदानन्ददायिनी, वहाँ पर आनन्द के साथ क्रिडा करो।

1 comment:

Anonymous said...

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