वर्तमान अवस्था में काम, अर्थ और यश -- ये तीन बन्धन मानो मुझसे दूर हो गये हैं और पुनः यहाँ भी मैं वैसा ही अनुभव कर रहा हूँ, जैसा कभी भारतवर्ष में मैंने किया था। मुझसे सभी भेद - भाव दूर हो गये हैं। अच्छा और बुरा, भ्रम और अज्ञानता सब विलीन हो गये हैं। मैं गुणातीत मार्ग पर चल रहा हूँ। किस नियम का पालन करूँ और किसकी अवज्ञा? उस ऊचाँई से विश्व मुझे मिट्टी का लोंदा लगता है हरि ॐ तत् सत्। इश्वर का अस्तित्व है; दूसरे का नहीं। मैं तुझमें और तू मुझमें। प्रभु, तू ही मेरे चिर शरण हो शांति, शांति, शांति! (वि.स.४/३४)
अरे पागल, परी जैसी औरतें, लाखों रुपये, ये सब मेरे लिए तुच्छ हो रहे हैं, यह क्या मेरे बल पर? -- या वे रक्षा कर रहे हैं, इसलिए! (४/३५४)
2 comments:
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